आज एक नवंबर है यानी बलिया दिवस. सरकारी रिकार्ड में तो यही तारीख है, लेकिन साफ तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि बलिया का अस्तित्व कब से है. सरकारी रिकॉर्ड भले ही कहें कि आज बलिया का उत्पत्ति दिवस है, लेकिन दर्जनों की संख्या में उत्तर वैदिक ग्रंथ, महाकाव्य काल एवं आधुनिक इतिहास इसे नहीं मानते.
चूंकि आज सरकारी रिकॉर्ड से बलिया दिवस मनाया जा रहा है, इसलिए पहले इसकी ही चर्चा कर लेते हैं. बात उस समय की है, जब देश में अंग्रेजी शासन था और अंग्रेज भारतीय लोगों के दमन में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे थे.
उस समय बलिया गाजीपुर जिले की एक तहसील भर थी. गंगा और घाघरा के दोआबे में बसे इस क्षेत्र के लोगों को अंग्रजों का दमन किसी हाल में मंजूर नहीं था.
फिर क्या था, साल 1878 में बलिया वालों ने बगावत का बिगुल फूंक दिया. स्थिति ऐसी बनी कि यहां के बवंडर को सुलझाने में गाजीपुर के कलेक्टर के पसीने छूट गए. ऐसे में अंग्रेजी फौज भेजी गई, लेकिन उसे भी मुंह की खानी पड़ी. थकहार कर कलेक्टर ने वायसराय और फिर वायसराय ने ब्रिटिस क्राउन को साफ तौर पर लिखा कि बलिया को संभालना आसान नहीं है. फिर ब्रिटिश क्राउन ने बलिया की बगावत पर कंट्रोल करने के लिए 1 नवम्बर 1879 को इसे जिला घोषित किया और सबसे तेज तर्रार अफसर को यहां के कलेक्टर की कमान सौंपी गई.
यहां हुई थी अग्नि की खोज
महर्षि भृगु की धरती बलिया को लेकर ब्रिटिश इतिहासकार एफएच फिशर ने साल 1884 के शासकीय गजेटियर वर्णन किया है. इसमें वह किविदंतियों के हवाले से लिखते हैं कि यहां जल पीकर कौवा भी हंस बन गया था. कहते हैं कि प्रचेता यानी ब्रह्मा जी ने महर्षि कश्यप की सलाह पर महर्षि भृगु को इस भू-भाग पर भेजा था. इसके बाद महर्षि भृगु के ही सानिध्य में महर्षि अंगिरा ने इस धरती पर अग्नि की खोज की. वर्णन मिलता है कि उसी समय यहां धान की खेती शुरू हो गई थी और महर्षि भृगु के गुरुकुल में अग्निहोत्र, कर्मकाण्ड, ज्योतिष की पढ़ाई आदि होने लगी थी.
बलि की राजधानी थी बलिया
बलिया की चर्चा भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी अपनी पुस्तक ‘द बुद्धा एंड हिज् धम्मा’ में किया है. वह लिखते हैं कि विरक्त होने के बाद निर्वाण की खोज में निकले राजकुमार सिद्धार्थ ने महर्षि भृगु के आश्रम में योग, ध्यान, यज्ञ, पूजा, कर्मकाण्ड का अभ्यास किया था. फिर वह महर्षि भृगु से आज्ञा लेकर अलार कलार मुनियों से मिलने गए. उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में कथा आती है कि यही पर महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य का जन्म हुआ. फिर शुक्राचार्य के निर्देशन में राजा बलि ने त्रिलोकी पर विजय हासिल किया. उस समय यह धरती बलियाग नाम से राजा बलि की राजधानी हुआ करती थी. जहां बलि के भय से कांप रहे देवताओं के दुख दूर करने के लिए खुद भगवान नारायण को वामन अवतार में यहां आना पड़ा था.
रामायण काल में भी था बलिया का अस्तित्व
महर्षि वाल्मीकि, अत्री, वशिष्ठ, जमदग्नि, भृगु, दुर्वासा अनेक ऋषियों की तपोभूमि रहे इस माटी का जिक्र रामायण में मिलता है. उस समय महर्षि विश्वामित्र के साथ भगवान राम छोटे भाई लक्ष्मण के साथ आए थे. श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली ने जिले के मौजूदा सिद्धागर घाट, लखनेश्वरडीह, रामघाट नगहर,कामेश्वर धाम कारों, सुजायत और उजियार भरौली को लीला स्थली माना है. इन स्थानों का उल्लेख बाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के तेइसवें अध्याय में मिलता है. मान्यता है कि भगवान राम ने जब सीता को निर्वासित किया तो वह यहीं तमसा नदी के तट पर स्थित बाल्मीकि आश्रम में कुश-लव को जन्म दिया था. इसके बाद लव कुश ने यहीं पर राम के राजसूय यज्ञ का घोड़ा पकड़ा था.
लक्ष्मण के बेटे चंद्रकेतु की राजधानी बना बलिया
इस क्षेत्र का का ज्यादातर भू-भाग पर मलद, करुष राजाओं ने शासन किया. मान्यता है कि मलद राज्य मल्ल राजाओं के राज्य का अपभ्रंश है. जब भगवान राम ने चारों भाइयों के पुत्रों में राज्य का बंटवारा किया तो लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु को अवध का यह सीमान्त क्षेत्र मिला था. उस समय चन्द्रकेतु ने मौजूदा लखनेश्वरडीह को राजधानी बनाया था. वर्णन मिलता है कि मल्ल राज्य काशी राज्य की उत्तर में था. भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यही वह स्थान है जिसका वर्णन ऊपर किया गया है. इस क्षेत्र के बारे में वाजसनेय संहिता, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, काठक संहिता, अथर्ववेद, पाण्डय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, छांदोग्य और बृहदारण्यकोपनिषद में भी मिलता है.
मुस्लिम शासक भी आए बलिया
ऐतिहासिक ग्रंथों के मुताबिक मुस्लिम आक्रमणकारियों में कुतुबुद्दीन ऐबक सबसे पहले 1194 में यहां आया. फिर 1202 में इख्तियार मुहम्मद ने घाघरा नदी के तट पर स्थित कठौड़ा और कुतुबगंज के समृद्ध नगर कब्जा कर लिया. मौजूदा बलिया नगर से सटे एक तत्कालीन राज्य हल्दी पर मुस्लिम शासकों ने हमला किया, लेकिन यह राज्य अजेय रहा. फिर 1493 सिकन्दर लोदी आया. 5 मई 1529 को बाबर और महमूद लोदी के बीच मध्ययुगीन इतिहास की पहली जल और थल पर हुई जंग भी इसी माटी पर हुआ था. 29 दिसंबर 1764 को इस जिले के भूभाग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया.
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