New Delhi, 8 नवंबर . सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की कविताएं न सिर्फ आजादी के सपनों के मोहभंग को उजागर करती हैं, बल्कि पूंजीवाद, राजनीति और आम आदमी की विवशता पर करारा प्रहार करती हैं. यही कारण है कि चालीस के दशक में जन्मे इस कवि की कविताएं आज के दौर में भी प्रासंगिक हैं.
धूमिल को ‘हिंदी कविता का एंग्री यंगमैन’ कहा जाता है, जिनकी आवाज ने 1960 के दशक के बाद की कविता को नई दिशा दी. उन्होंने ‘धूमिल की अंतिम कविता’ शीर्षक से कुछ लाइन्स में समाज की सच्चाई को भी लिखा, जैसे ‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो. उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है.’
सुदामा पांडेय का जन्म 9 नवंबर 1936 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के खेवली गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता शिवनायक पांडेय, एक मुनीम थे, जो घर की आर्थिक जिम्मेदारी संभालते थे, जबकि मां, रजवंती देवी, घर-गृहस्थी निभाती रहीं. लेकिन जीवन ने जल्दी ही कठोर परीक्षा ली. मात्र 11 वर्ष की उम्र में पिता का देहांत हो गया, जिससे परिवार पर आर्थिक संकट आ गया.
बालक सुदामा को पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करनी पड़ी. वे कलकत्ता चले गए, जहां उन्होंने लोहा-लकड़ी ढोने का कठिन श्रम किया. वहां एक फैक्ट्री में काम के दौरान मालिक से विवाद हो गया, जिसके बाद वे वापस लौट आए. यह संघर्ष ही उनके काव्य का मूल स्वर बना, जिसमें उन्होंने मजदूरों की पीड़ा और पूंजीपतियों के शोषण को शामिल किया.
1953 में हाईस्कूल पास करने के बाद, 1957 में काशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान (आईटीआई) में प्रवेश लिया. 1958 में प्रथम श्रेणी से प्रथम स्थान हासिल कर विद्युत डिप्लोमा प्राप्त किया और वहीं विद्युत अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए. बाद में पदोन्नति पाकर बलिया चले गए, लेकिन लेखन के प्रति उनका जुनून कभी कम न हुआ.
धूमिल की कविताएं साठोत्तरी पीढ़ी की प्रतिनिधि हैं. वे नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर थे, जिन्होंने मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ जैसी कविताओं को आगे बढ़ाया.
‘संसद से सड़क तक’ (1972), ‘कल सुनना मुझे’ (1977), ‘सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र’ (1984), और ‘बांसुरी जल गई’ उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक हैं. ‘मोचीराम’, ‘पटकथा’, ‘बीस साल बाद’, ‘रोटी और संसद’, ‘लोहे का स्वाद’, और ‘घर में वापसी’ जैसी कविताएं हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुईं.
उनकी कविता में प्रतीकवाद, लाक्षणिकता और खड़ी बोली का प्रयोग है, जो आम बोलचाल से निकलकर गहन संवेदना पैदा करता है. धूमिल ने कहा था, ”मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है.” यह पंक्ति सामाजिक असमानता की मार्मिक अभिव्यक्ति है.
धूमिल का जीवन सादगीपूर्ण था. 10 फरवरी 1975 को ब्रेन ट्यूमर से मात्र 38 वर्ष की छोटी आयु में उनकी मृत्यु हो गई, तो परिवार को रेडियो पर खबर सुनकर पता चला कि वे प्रसिद्ध कवि थे. उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.
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एससीएच/एबीएम
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