देवउठनी एकादशी का बहुत खास महत्व होता है क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु चार माह की निद्रा के बाद जागते हैं। साथ ही, इस दिन चातुर्मास का भी समापन हो जाता है। ऐसे में इस दिन विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा और व्रत करने से बेहद शुभ फल की प्राप्ति होती है। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान की पूजा करते समय और श्रीहरि को जगाते समय कुछ मंत्रों का जाप भी अवश्य करना चाहिए। ऐसे में आइए जानते हैं   देवउठनी एकादशी की पूजा विधि, मंत्र और विष्णुजी को जगाने का तरीका। इस दिन विधिपूर्वक पूजा व व्रत करने से जातक का भाग्य जाग सकता है और पूजा का पूर्ण फल प्राप्त होता है।   
   
देव उठनी एकादशी पूजा विधि
कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी के नाम से भी जाना जाता है। इसके निमित्त स्नान-दान और उपवास यथापूर्व किए जाते हैं। विशेषता यह है कि एक वेदीपर सोलह आर (कोण या पत्ती) का कमल बनाकर उसपर सागरोपम, जल पूर्ण, रत्न प्रयुक्त, मलयागिरिसे चर्चित, कण्ठप्रदेश में नाल से आबद्ध और सुश्वेत वस्त्र से आच्छादित चार कलश स्थापित करें और उनके बीच में पीताम्बर धारण किए हुए शंख चक्र गदाधारी चतुर्भुज और शेषशायी भगवान की सुवर्ण निर्मित मूर्ति स्थापित करके उसका 'सहस्त्रशीर्षा' आदि ऋचाओं से अंगन्यास पूर्वक यथाविधि पूजन करें और रात्रि में जागरण करके दूसरे दिन के प्रभात में वेदपाठी पांच ब्राह्मणों को बुलाकर उक्त चार कलश चार को और योगेश्वर भगवान की (स्वर्णमयी) मूर्ति पांचवें को देकर उनको भोजन करवाकर स्वयं भोजन करें तो गंगादि तीर्थों, सुवर्णादि दानों और भगवान आदिकी पूजा के समान फल होता है।
   
यह तो प्रसिद्ध है कि आषाढ़ शुक्ल से कार्तिक शुक्लपर्यन्त ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, सूर्य और सोमादि देवों से वन्दित, जगन्निवास, योगेश्वर क्षीर सागर में शेषशय्यापर चार मास शयन करते हैं और भगवद्भक्त उनके शयन परिवर्तन और प्रबोध के यथोचित कृत्य दत्तचित्त होकर यथासमय करते हैं। उनमें दो कृत्य आषाढ़ और भाद्रपद के व्रतों में प्रकाशित हो चुके हैं और तीसरे (प्रबोध) का विधान यहां प्रकट किया जाता है। यद्यपि भगवान क्षणभर भी कभी सोते नहीं, तथापि 'यथा देहे तथा देवे' मानने वाले उपासकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिए।
   
भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने की विधि
यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि के समय किया जाता है। उस समय शयन करते हुए हरि को जगाने के लिए सुभाषित स्तोत्र पाठ, भगवत कथा, पुराणादि का श्रवण और भजनादि का 'गायन', घंटा, शंख, मृदंग, नगारे और वीणा आदि का 'वादन' और विविध प्रकार के देवोपम खेल-कूद, लीला और नाच आदि के द्वारा भगवान को जगाएं और साथ ही, इन मंत्रों का उच्चारण करें।
'उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम।'
'उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव। गता मेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः।'
'शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'
   
अनन्तर भगवान के मंदिर (अथवा सिंहासन) को नाना प्रकार के लता-पत्र, फल-पुष्प और बंदनवार आदि से सजावे और 'विष्णु पूजा' या 'पंचदेव पूजा विधान' अथवा 'रामार्चनचन्द्रिका' आदि के अनुसार भली प्रकार पूजन करें और समुज्ज्वल घृतवर्तिका या कर्पूरादि को प्रज्वलित करके नीराजन (आरती) करें।
   
'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।' से पुष्पांजलि अर्पण करके 'इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता। त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थं शेषशायिना।' 'इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो। न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्ञ्जनार्दन।' से प्रार्थना करें और प्रह्लाद, नारद, पराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष, शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत या प्रसाद का वितरण करें। इस प्रकार विष्णु भगवान योग निद्रा को त्यागकर प्रत्येक प्रकार की क्रिया करने में प्रवृत्त हो जाते हैं और प्राणिमात्र का पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं। प्रबोधिनी की पारणा में रेवती का अन्तिम तृतीयांश हो तो उसको त्यागकर भोजन करना चाहिए।
  
देव उठनी एकादशी पूजा विधि
कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी के नाम से भी जाना जाता है। इसके निमित्त स्नान-दान और उपवास यथापूर्व किए जाते हैं। विशेषता यह है कि एक वेदीपर सोलह आर (कोण या पत्ती) का कमल बनाकर उसपर सागरोपम, जल पूर्ण, रत्न प्रयुक्त, मलयागिरिसे चर्चित, कण्ठप्रदेश में नाल से आबद्ध और सुश्वेत वस्त्र से आच्छादित चार कलश स्थापित करें और उनके बीच में पीताम्बर धारण किए हुए शंख चक्र गदाधारी चतुर्भुज और शेषशायी भगवान की सुवर्ण निर्मित मूर्ति स्थापित करके उसका 'सहस्त्रशीर्षा' आदि ऋचाओं से अंगन्यास पूर्वक यथाविधि पूजन करें और रात्रि में जागरण करके दूसरे दिन के प्रभात में वेदपाठी पांच ब्राह्मणों को बुलाकर उक्त चार कलश चार को और योगेश्वर भगवान की (स्वर्णमयी) मूर्ति पांचवें को देकर उनको भोजन करवाकर स्वयं भोजन करें तो गंगादि तीर्थों, सुवर्णादि दानों और भगवान आदिकी पूजा के समान फल होता है।
यह तो प्रसिद्ध है कि आषाढ़ शुक्ल से कार्तिक शुक्लपर्यन्त ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, सूर्य और सोमादि देवों से वन्दित, जगन्निवास, योगेश्वर क्षीर सागर में शेषशय्यापर चार मास शयन करते हैं और भगवद्भक्त उनके शयन परिवर्तन और प्रबोध के यथोचित कृत्य दत्तचित्त होकर यथासमय करते हैं। उनमें दो कृत्य आषाढ़ और भाद्रपद के व्रतों में प्रकाशित हो चुके हैं और तीसरे (प्रबोध) का विधान यहां प्रकट किया जाता है। यद्यपि भगवान क्षणभर भी कभी सोते नहीं, तथापि 'यथा देहे तथा देवे' मानने वाले उपासकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिए।
भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने की विधि
यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि के समय किया जाता है। उस समय शयन करते हुए हरि को जगाने के लिए सुभाषित स्तोत्र पाठ, भगवत कथा, पुराणादि का श्रवण और भजनादि का 'गायन', घंटा, शंख, मृदंग, नगारे और वीणा आदि का 'वादन' और विविध प्रकार के देवोपम खेल-कूद, लीला और नाच आदि के द्वारा भगवान को जगाएं और साथ ही, इन मंत्रों का उच्चारण करें।
'उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम।'
'उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव। गता मेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः।'
'शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'
अनन्तर भगवान के मंदिर (अथवा सिंहासन) को नाना प्रकार के लता-पत्र, फल-पुष्प और बंदनवार आदि से सजावे और 'विष्णु पूजा' या 'पंचदेव पूजा विधान' अथवा 'रामार्चनचन्द्रिका' आदि के अनुसार भली प्रकार पूजन करें और समुज्ज्वल घृतवर्तिका या कर्पूरादि को प्रज्वलित करके नीराजन (आरती) करें।
'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।' से पुष्पांजलि अर्पण करके 'इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता। त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थं शेषशायिना।' 'इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो। न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्ञ्जनार्दन।' से प्रार्थना करें और प्रह्लाद, नारद, पराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष, शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत या प्रसाद का वितरण करें। इस प्रकार विष्णु भगवान योग निद्रा को त्यागकर प्रत्येक प्रकार की क्रिया करने में प्रवृत्त हो जाते हैं और प्राणिमात्र का पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं। प्रबोधिनी की पारणा में रेवती का अन्तिम तृतीयांश हो तो उसको त्यागकर भोजन करना चाहिए।
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